सिख विरोधी दंगों में जस्टिस ढींगरा की विशेष जांच दल (एसआईटी) रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ है कि पुलिस व प्रशासन ने आरोपियों की सजा दिलाने की नीयत से कानूनी कार्रवाई नहीं की। घटना व अपराध के अनुसार एफआईआर दर्ज नहीं की गई। एक एफआईआर में कई मामले दर्ज किए। सुल्तानपुरी थाने में दर्ज एफआईआर संख्या 268/84 में हत्या, लूट, आगजनी की 498 घटनाएं दर्ज की गई। एक जांच अधिकारी 500 घटनाओं की जांच कैसे कर सकता था? पुलिस को एसटीएफ बनानी चाहिए थी।
अंदाज से ही पहचाना
एसआईटी ने 54 ऐसे मामलों की जांच की, जिनमें 426 हत्या हुई थीं। जांच में सामने आया कि इनमें से 84 शवों की कभी शिनाख्त ही नहीं हो सकी। जिन शवों की कभी शिनाख्त ही नहीं हुई, उनकी हत्या में किसी को आरोपी भी नहीं बनाया गया। ऐसे भी मामले आए, जिनमें परिजन कहते रहे कि उनके सामने हत्या हुई, पर शव न मिलने से केस ही दर्ज नहीं किया गया। कई शवों की पहचान केवल इस आधार पर हुई कि उन्हें गाड़ी के साथ या आसपास जलाया गया था। कुछ शव घर के पास मिलने पर लोगों ने मान लिया कि शव उनके परिजनों के हैं।
सैकड़ों आरोपी बनाए, केस लटकाए
हत्या के मामलों में पीड़ितों ने आरोपियों के नाम पुलिस को बताए, लेकिन पुलिस ने अलग अलग जगह व समय पर हुई हत्याओं के कोर्ट में एक साथ चालान पेश किए। कानूनन एक ही तरह के केवल तीन मामलों में ऐसा कर सकती थी। सभी आरोपियों को सुनवाई में साथ लाने लगी। जज भी चाहते तो अलग अलग चालान दायर करने के लिए पुलिस को कह सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इससे तारीख पर कई आरोपी कोर्ट नहीं आते और सुनवाई लंबी चलती गई। निराश होकर कई पीड़ित सुनवाई से अलग हो गए, बयान बदलते गए।
34 साल बाद जांच मुश्किल
सभी 199 मामलों में आगे जांच होनी चाहिए, बड़ी संख्या में हत्या, दंगों, लूट, आगजनी के आरोपी सजा से दूर हैं या उनका पता नहीं है। लेकिन काफी समय बीतने से जांच संभव नहीं है। कुछ मृतकों के परिजन, पीड़ित व चश्मदीद मर चुके हैं, कुछ में आरोपी। 34 साल बाद संबधित दस्तावेज भी लोगों के पास शायद नहीं होंगे।
एक एफआईआर में 500 घटनाएं साथ दर्ज गईं
पुलिस और प्रशासन ने आरोपियों को सजा दिलाने की नीयत से कानूनी कार्रवाई नहीं की। घटना व अपराध के अनुसार एफआईआर दर्ज नहीं की गई। एक ही एफआईआर में कई मामले दर्ज किए। सुल्तानपुरी थाने में दर्ज एफआईआर संख्या 268/84 में हत्या, लूट, आगजनी, की 498 घटनाएं साथ दर्ज की र्गइं। एक जांच अधिकारी 500 घटनाओं की जांच कैसे कर सकता था? पुलिस को एसटीएफ बनानी चाहिए थी।
पुलिस ने शवों के साक्ष्य रखे न जजों ने गवाहियां मानी
सैकड़ों लावारिस शव मिले, लेकिन पुलिस ने उनके फॉरेंसिक साक्ष्य नहीं रखे, जिससे आगे उनकी पहचान नहीं हुई। पुलिस व प्रशासन दंगों में हुए अपराध छिपाने में जुटे रहे। 1985 में दिए गए हलफनामों पर 1991-92 में एफआईआर दर्ज हुईं। इसी वजह से तत्कालीन जजों ने इन मामलों में गवाहियों को माना नहीं।
प्रमुख सिफारिशें
- चार फाइलों में दर्ज मामले जिनमें आरोपी छोड़ दिए गए उनमें देरी के बावजूद अपील दायर करने दी जाए
- निर्धारित मामलों में सरकार खुद भी जजोें द्वारा रिहा किए गए आरोपियों के खिलाफ फिर अपील करे
- दंगों के समय कल्यानपुरी थाने के एसएचओ इंस्पेक्टर सूरवीर सिंह त्यागी ने दंगाइयों के साथ षड़यंत्र रचा, सिखों के लाइसेंसी शस्त्र रखवा लिए ताकि दंगाई लूट व हत्याएं करें। उसे निलंबित किया गया था, लेकिन बाद में एसीपी प्रमोट किया गया। यह मामले दिल्ली पुलिस की दंगा सेल को कार्रवाई के लिए भेजें।